कभी बहरी, कभी गूंगी, कभी अंधी .. Podcast By  cover art

कभी बहरी, कभी गूंगी, कभी अंधी ..

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हाँ बनती है ना कभी बहरी ,
कभी गूंगी ,कभी अंधी

स्त्री है ना जानती है जोड़ कर
रखने जो हैं धागे उन्हें एक माला में

डरती भी है! दहल जाता है दिल
जब सुनती है ऊंचे स्वर की बातें

मूक रह जाती है ,अनदेखा करती है जाने कितनी बातें
क्यूंकि उन्हें पता है मोती बिखर जाते हैं माला से

अगर उलझ गये जो इसके धागे
तभी तो मुस्कुराती है ,उड़ाती है हर गुब्बार को

क्यूंकि रिश्तों को जोड़े रखने में
हाँ बनना पड़ता है कभी-कभी अंधा, बहरा ,गूंगा |
----एकता कोचर रेलन
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