• Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 28
    Feb 15 2025

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.28 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण अश्रद्धा से किए गए कर्मों का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "हे पार्थ, जो यज्ञ, दान, तप और अन्य कर्म श्रद्धा के बिना किए जाते हैं, वे 'असत्' माने जाते हैं। ऐसे कर्म न तो इस जीवन में फलकारी होते हैं और न ही मरने के बाद।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि जब कोई व्यक्ति बिना श्रद्धा और विश्वास के कोई धार्मिक या पवित्र कार्य करता है, तो वह कार्य अधूरा और निष्फल होता है। ऐसे कर्मों का कोई वास्तविक लाभ नहीं होता, न ही वे आत्मा के उन्नति के लिए कारगर होते हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 27
    Feb 14 2025

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.27 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण "सत्" शब्द के प्रयोग के बारे में कहते हैं:

    "यज्ञ, तप और दान के द्वारा जो स्थिरता प्राप्त होती है, उसे 'सत्' शब्द से ही अभिहित किया जाता है। इसी प्रकार, जो कर्म इन उद्देश्यों के लिए किए जाते हैं, वे भी 'सत्' ही माने जाते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि यज्ञ (धार्मिक अनुष्ठान), तप (आध्यात्मिक साधना) और दान (सामाजिक सहायता) जैसे कर्म जब निस्वार्थ और उच्च उद्देश्य के लिए किए जाते हैं, तो वे 'सत्' के रूप में पहचाने जाते हैं। यह शब्द ऐसे कार्यों को इंगीत करता है जो सत्य, धर्म और भलाई के प्रति समर्पित होते हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 26
    Feb 13 2025

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.26 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण "सत्" शब्द के महत्व और इसके उपयोग का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "‘सत्’ शब्द का उपयोग सद्भाव (सत्प्रवृत्ति) और साधुभाव (पवित्रता और सच्चाई) के संदर्भ में किया जाता है। हे पार्थ (अर्जुन), यह शब्द प्रशंसनीय और श्रेष्ठ कर्मों में भी प्रयोग होता है।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि ‘सत्’ सत्य, शुद्धता और उत्कृष्टता का प्रतीक है। यह शब्द उन कर्मों को इंगित करता है जो धर्म, सत्य और आध्यात्मिकता के अनुरूप होते हैं। ‘सत्’ का प्रयोग उन कार्यों के लिए होता है जो समाज और आत्मा के कल्याण के लिए किए जाते हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 25
    Feb 13 2025

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.25 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण "तत्" शब्द के महत्व और इसके उपयोग को समझाते हुए कहते हैं:

    "मोक्ष की इच्छा रखने वाले (आत्मज्ञान प्राप्त करने की कामना करने वाले) लोग फल की अभिलाषा किए बिना, 'तत्' शब्द का उच्चारण करते हुए, यज्ञ, तप और दान की विविध क्रियाएँ करते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि 'तत्' शब्द त्याग और निस्वार्थता का प्रतीक है। जब कोई व्यक्ति अपने कार्यों को फल की अपेक्षा किए बिना, केवल मोक्ष प्राप्ति और परमात्मा के प्रति समर्पण की भावना से करता है, तो उसके कार्य शुद्ध और आध्यात्मिक उन्नति के लिए होते हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 24
    Feb 13 2025

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.24 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण "ॐ" के महत्व और उसके उपयोग का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "इसलिए 'ॐ' उच्चारण के साथ, यज्ञ, दान और तप की क्रियाएँ वैदिक विधानों के अनुसार प्रारंभ की जाती हैं, जैसा कि ब्रह्मविद्या में पारंगत लोग करते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि 'ॐ' परमात्मा का प्रतीक है और यह वैदिक कर्मों को पवित्र और प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है। यज्ञ, दान और तप जैसे कार्य जब श्रद्धा और विधिपूर्वक 'ॐ' के साथ किए जाते हैं, तो वे अधिक शुभ और फलदायी हो जाते हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 23
    Feb 12 2025

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.23 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण "ॐ तत्सत्" के महत्व का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "ॐ, तत् और सत्—ये ब्रह्म के तीन नाम हैं, जो प्राचीन समय से स्मरण किए गए हैं। इन्हीं के द्वारा ब्राह्मण, वेद और यज्ञ की रचना की गई थी।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि ये तीन शब्द (ॐ, तत् और सत्) ब्रह्म के पवित्र और शाश्वत स्वरूप को व्यक्त करते हैं। ये शब्द न केवल वैदिक परंपराओं का मूल आधार हैं, बल्कि यज्ञ, तप और दान जैसे कर्मों को पवित्र और फलदायी बनाने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 22
    Feb 12 2025

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.22 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तामसी दान का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "जो दान अनुचित स्थान और समय पर, अयोग्य व्यक्ति को, बिना आदर और सम्मान के, या तिरस्कारपूर्वक दिया जाता है, वह तामसी दान कहलाता है।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बताते हैं कि तामसी दान अज्ञान, अहंकार और असंवेदनशीलता से प्रेरित होता है। ऐसा दान न तो दाता के लिए पुण्य का कारण बनता है और न ही प्राप्तकर्ता के लिए कोई वास्तविक सहायता करता है। यह दान धर्म और निस्वार्थता के सिद्धांतों के विपरीत है।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 21
    Feb 11 2025

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.21 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण राजसी दान का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "जो दान प्रत्युपकार (वापसी में कुछ पाने) की इच्छा से, या किसी फल की कामना से, अथवा अनिच्छा और कष्टपूर्वक दिया जाता है, वह दान राजसी माना गया है।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझाते हैं कि राजसी दान स्वार्थ और दिखावे से प्रेरित होता है। यह दान केवल बदले में लाभ पाने या प्रशंसा अर्जित करने के उद्देश्य से दिया जाता है, और इसमें सच्ची श्रद्धा या निस्वार्थता नहीं होती। ऐसे दान से आत्मिक उन्नति नहीं होती।

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